यह चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से लेकर रामनवमी तक मनाया जाता हैं । इन दिनो भगवती दुर्गा पूजा तथा कन्या पूजन का विधान हैं । प्रतिपदा के दिन घट-स्थापना एवं जौ बोने कि कि्रया की जाती हैं । नौ दिन तक ब्राह्मण द्वारा या स्वयं देवी भगवती दुर्गा का पाठ करने का विधान है।
कथाः प्राचीन समय में सुरथ नाम के राजा थे । राजा प्रजा की रक्षा में उदासीन रहने लगे थे । परिणामस्वरूप पडोसी राजा ने उस पर चढाई कर दी सुरथ की सेना भी शत्रु से मिल गई थी । परिणामस्वरूप राजा सुरथ की हार हुई वह जान बचाकर जंगल की तरफ भाग गया । उसी वन में समाधि नामक एक वणिक अपनी स्त्री एवं संतान के दुर्व्यवहार के कारण निवास करता था उसी वन में वणिक समाधि और राजा सुरथ की भेट हुई । दोनो में परस्पर परिचय हुआ था वे दोनो घुमते हुए महर्षि मेघा के आश्रम में पहुँचे । महर्षि मेघा ने उन दोनो के आने का कारण जानना चाहा तो वे दोनो बोले कि हम अपने ही सगे सम्बन्धियो द्वारा अपमानित एवं तिरस्कृत होने पर भी हमारे ह्वदय में उनका मोह बना हुआ है, इसका क्या कारण हैं? महर्षि मेघा ने उन्हे समझाया की मन शक्ति के आधीन होता है और आदि शक्ति के विद्यssा और अविद्या दो रूप है । विद्या ज्ञान स्वरूप है और अविद्या अज्ञान स्वरूपा । जो व्यक्ति अविद्या (अज्ञान) के आदिकरण रूप में उपासना करते हैं, उन्हे वे विद्या स्वरूपा प्राप्त होकर मोक्ष प्रदान करती हैं ।
इतना सुन राजा सुरथ ने प्रश्न किया- हे महर्षि! देवी कौन है? उसका जन्म कैसे हुआ? महर्षि बोले- आप जिस देवी के विषय में पूछ रहे हैं वह नित्य स्वरूपा और विश्व व्यापिनी है । उसके बारे में ध्यानपर्वक सुनो । कल्पांत के समय विष्णु भगवान क्षीर सागर में अनन्त शैय्या पर शयन कर रहे थे, तब उनके दोनो कानो में मधू और कैटभ नामक दो दैत्य उत्पन्न हुए । वे दोनो विष्णु की नाभि कमल से उत्पन्न ब्रह्माजी को मारने दौडे। ब्रह्माजी ने उन दोनो राक्षसो को देखकर विष्णुजी की शरण में जाने की सोची । परन्तु विष्णु भगवान उस समय सो रहे थे । तब उन्होने विष्णु भगवान को जगाने हेतु उनके नयनो में निवास करने वाली योगनिद्रा की स्तुति की । परिणामस्वरूप तमोगुण अधिष्ठात्री देवी विष्णु भगवान के नेत्र, नासिका, मुख तथा ह्वदय से निकलकर ब्रह्मा के सामने उपस्थित हो गई । योगनिद्रा के निकलते ही विष्णु भगवान उठकर बैठ गए । भगवान विष्णु और उन राक्षसो में पाँच हजार वर्षो तक युद्ध चलता रहा । अन्त में मधु और कैटभ दोनो राक्षस मारे गए । ऋषि बोले- अब ब्रह्माजी की स्तुति से उत्पन्न महामाया देवी की वीरता तथा प्रभाव का वर्णन करता हूँ उसे ध्यानपूर्वक सुनो । एक समय देवताओ के स्वामी इन्द्र तथा दैत्यो के स्वामी महिषासुर में सैकडो वर्षो तक घनघोर संग्राम हुआ । इस युद्ध में देवराज इन्द्र की पराजय हुई और महिषासुर इन्द्रलोक का स्वामी बन बैठा । अब देवतागण ब्रह्मा के नेतृत्व में भगवान विष्णु और भगवान शंकर की शरण में गए । देवताओ की बाते सुनकर भगवान विष्णु तथा भगवान श्ंाकर क्रोधित हो गए । भगवान विष्णु के मुख तथा ब्रह्मा, शिवजी तथा इन्द्र आदि के शरीर से एक तेज पुंज निकला जिससे समस्त दिशाएँ जलने लगी और अन्त में यही तेज पुंज एक देवी के रूप में परिवर्तित हो गया । देवी ने सभी देवताओ से आयुद्ध एवं शक्ति प्राप्त करके उच्च स्वर में अट्टहास किया जिससे तीनो लोको में हलचल मच गई । महिषासुर अपनी सेना लेकर इस सिंहनाद की ओर दौडा । उसने देखा की देवी के प्रभाव से तीनो लोक आलोकित हो रहे है। महिषासुर की देवी के सामने एक भी चाल सफल नही हो सकी । और वह देवी के हाथो मारा गया । आगे चलकर यही देवी शुम्भ और निशुम्भ राक्षसो का वध करने के लिए गौरी देवी के रूप में अवतरित हुईं । इन उपरोक्त व्याख्यानों को सुनाकर मेंघा ऋषि ने राजा सुरथ तथा वणिक से देवी स्तवन की विधिवत व्याख्या की । राजा और वणिक नदी पर जाकर देवी की तपस्या करने लगे । तीन वर्ष घोर तपस्या करने के बाद देवी ने प्रकट होकर उन्हें आशीर्वाद दिया । इससे वणिक संसार के मोह से मुक्त होकर आत्मचिंतन में लग गया और राजा ने शत्रुओ पर विजय प्राप्त करके अपना वैभव प्राप्त कर लिया। |