दूसरा अध्याय
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥६१॥
उन सब को संयम कर मेरा धयान करना चाहिये, क्योंकि जिसकी
इन्द्रीयाँ वश में है वही ज्ञान में स्थित है॥
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥६२॥
चीजों के बारे में सोचते रहने से मनुष्य को उन से लगाव हो जाता है।
इससे उसमे इच्छा पौदा होती है और इच्छाओं से गुस्सा पैदा होता है॥
क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥६३॥
गुस्से से दिमाग खराब होता है और उस से यादाश्त पर पड़दा पड़ जाता है।
यादाश्त पर पड़दा पड़ जाने से आदमी की बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि नष्ट हो जाने
पर आदमी खुद ही का नाश कर बौठता है॥
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति॥६४॥
इन्द्रीयों को राग और द्वेष से मुक्त कर, खुद के वश में कर, जब मनुष्य विषयों को
संयम से ग्रहण करता है, तो वह प्रसन्नता और शान्ती प्राप्त करता है॥
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते॥६५॥
शान्ती से उसके सारे दुखों का अन्त हो जाता है क्योंकि
शान्त चित मनुष्य की बुद्धि जलदि ही स्थिर हो जाती है॥
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्॥६६॥
जो संयम से युक्त नहीं है, जिसकी इन्द्रीयाँ वश में नहीं हैं, उसकी बुद्धि भी स्थिर
नही हो सकती और न ही उस में शान्ति की भावना हो सकती है। और जिसमे
शान्ति की भावना नहीं है वह शान्त कैसे हो सकता है। जो शान्त नहीं है उसे सुख कैसा॥
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनु विधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि॥६७॥
मन अगर विचरती हुई इन्द्रीयों के पीछे कहीं भी लग लेता है तो
वह बुद्धि को भी अपने साथ वैसे ही खीँच कर ले जाता है जैसे
एक नाव को हवा खीच ले जाती है॥
तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥६८॥
इसलिये हे महाबाहो, जिसकी सभी इन्द्रीयाँ अपने विषयों से पूरी तरह
हटी हुई हैं, सिमटी हुई हैं, उसी की बुद्धि स्थिर होती है॥
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः॥६९॥
जो सब के लिये रात है उसमें संयमी जागता है,
और जिसमे सब जागते हैं उसे मुनि रात की तरह देखता है॥
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी॥७०॥
नदियाँ जैसे समुद्र, जो एकदम भरा, अचल और स्थिर रहता है, में आकर शान्त हो जाती हैं,
उसी प्रकार जिस मनुष्य में सभी इच्छाऐं आकर शान्त हो जाती हैं, वह शान्ती प्राप्त करता है।
न कि वह जो उनके पीछे भागता है॥
विहाय कामान्यः सर्वान् पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति॥७१॥
सभी कामनाओं का त्याग कर, जो मनुष्य स्पृह रहित रहता है,
जो मै और मेरा रूपी अहंकार को भूल विचरता है, वह शान्ती को
प्राप्त करता है॥
एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥७२॥
ब्रह्म में स्थित मनुष्य ऍसा होता है, हे पार्थ। इसे प्राप्त करके वो
फिर भटकता नहीं। अन्त समय भी इसी स्थिति में स्थित वह ब्रह्म
निर्वाण प्राप्त करता है॥