छटा अध्याय
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते॥३१॥
सभी भूतों में स्थित मुझे जो अन्नय भाव से स्थित हो कर भजता है, वह सब कुछ
करते हुऐ भी मुझ ही में रहता है।
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः॥३२॥
हे अर्जुन, जो सदा दूसरों के दुख सुख और अपने दुख सुख को एक सा देखता है,
वही योगी सबसे परम है।
अर्जुन उवाच
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन।
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम्॥३३॥
हे मधुसूदन, जो आपने यह समता भरा योग बताया है, इसमें मैं
स्थिरता नहीं देख पा रहा हूँ, मन की चंचलता के कारण।
चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्॥३४॥
हे कृष्ण, मन तो चंचल, हलचल भरा, बलवान और दृढ होता है। उसे
रोक पाना तो मैं वैसे अत्यन्त कठिन मानता हूँ जैसे वायु को रोक पाना।
श्रीभगवानुवाच
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥३५॥
बेशक, हे महाबाहो, चंचल मन को रोक पाना कठिन है, लेकिन हे
कौन्तेय, अभ्यास और वैराग्य से इसे काबू किया जा सकता है।
असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः॥३६॥
मेरे मत में, आत्म संयम बिना योग प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है। लेकिन अपने
आप को वश मे कर अभ्यास द्वारा इसे प्राप्त किया जा सकता है।
अर्जुन उवाच
अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति॥३७॥
हे कृष्ण, श्रद्धा होते हुए भी जिसका मन योग से हिल जाता है, योग सिद्धि को
प्राप्त न कर पाने पर उसको क्या परिणाम होता है।
कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि॥३८॥
क्या वह दोनों पथों में असफल हुआ, टूटे बादल की तरह नष्ट नहीं हो जाता। हे महाबाहो,
अप्रतिष्ठित और ब्रह्म पथ से विमूढ हुआ।
एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः।
त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते॥३९॥
हे कृष्ण, मेरे इस संशय को आप पूरी तरह मिटा दीजीऐ क्योंकि आप के अलावा और कोई
नहीं है जो इस संशय को छेद पाये।
श्रीभगवानुवाच
पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति॥४०॥
हे पार्थ, उसके लिये विनाश न यहाँ है और न कहीं और ही। क्योंकि, हे तात,
कल्याण कारी कर्म करने वाला कभी दुर्गति को प्राप्त नहीं होता।
प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते॥४१॥
योग पथ में भ्रष्ट हुआ मनुष्य, पुन्यवान लोगों के लोकों को प्राप्त कर, वहाँ बहुत समय तक रहता है और
फिर पवित्र और श्रीमान घर में जन्म लेता है।
अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्।
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्॥४२॥
या फिर वह बुद्धिमान योगियों के घर मे जन्म लेता है। ऍसा जन्म मिलना इस संसार
में बहुत मुश्किल है।
तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्।
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन॥४३॥
वहाँ उसे अपने पहले वाले जन्म की ही बुद्धि से फिर से संयोग प्राप्त होता है। फिर दोबारा
अभ्यास करते हुऐ, हे कुरुनन्दन, वह सिद्धि प्राप्त करता है।
पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते॥४४॥
पुर्व जन्म में किये अभ्यास की तरफ वह बिना वश ही खिच जाता है। क्योंकि योग मे
जिज्ञासा रखने वाला भी वेदों से ऊपर उठ जाता है।
प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्॥४५॥
अनेक जन्मों मे किये प्रयत्न से योगी विशुद्ध और पाप मुक्त हो, अन्त में परम सिद्धि को प्राप्त
कर लेता है।
तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन॥४६॥
योगी तपस्वियों से अधिक है, विद्वानों से भी अधिक है, कर्म से जुड़े लोगों से भी
अधिक है, इसलिये हे अर्जुन तुम योगी बनो।
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।
श्रद्धावान् भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः॥४७॥
और सभी योगीयों में जो अन्तर आत्मा को मुझ में ही बसा कर श्रद्धा से
मुझे याद करता है, वही सबसे उत्तम है।