नौंवा अध्याय
गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्॥१८॥
मैं ही गति (परिणाम) हूँ, भर्ता (भरण पोषण करने वाला) हूँ, प्रभु (स्वामी) हूँ, साक्षी हूँ, निवास स्थान हूँ, शरण देने
वाला हूँ और सुहृद (मित्र अथवा भला चाहने वाला) हूँ। मैं ही उत्पत्ति हूँ, प्रलय हूँ, आधार (स्थान) हूँ, कोष हूँ। मैं ही
विकारहीन अव्यय बीज हूँ।
तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च।
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन॥१९॥
मैं ही भूमि को (सूर्य रूप से) तपाता हूँ और मैं ही जल को सोक कर वर्षा करता हूँ। मैं अमृत भी हूँ, मृत्यु भी, हे अर्जुन,
और मैं ही सत् भी और असत् भी।
त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकमश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्॥२०॥
तीन वेदों (ऋग, साम, यजुर) के ज्ञाता, सोम (चन्द्र) रस का पान करने वाले, क्षीण पाप लोग स्वर्ग प्राप्ति की इच्छा से
यज्ञों द्वारा मेरा पूजन करते हैं। उन पुण्य कर्मों के फल स्वरूप वे देवताओं के राजा इन्द्र के लोक को प्राप्त कर, देवताओं के दिव्य
भोगों का भोग करते हैं।
ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति।
एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते॥२१॥
वे उस विशाल स्वर्ग लोक को भोगने के कारण क्षीण पुण्य होने पर फिर से मृत्यु लोक पहुँचते हैं। इस प्रकार
कामी (इच्छाओं से भरे) लोग, तीन शीखाओं वाले धर्म (तीन वेदों) का पालन कर, अपनी इच्छाओं को प्राप्त कर बार बार
आते जाते हैं।
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥२२॥
किसी और का चिन्तन न कर, अनन्य चित्त से जो जन मेरी उपासना करते हैं, उन नित्य अभियुक्त (सदा मेरी भक्ति से युक्त)
लोगों को मैं योग और क्षेम (जो नहीं है उसकी प्राप्ति और जो है उसकी रक्षा - लाभ की प्राप्ति और अलाभ से रक्षा) प्रदान करता हूँ।
येऽप्यन्यदेवताभक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्॥२३॥
जो (अन्य देवताओं के) भक्त अन्य देवताओं का श्रद्धा से पूजन करते हैं, वे भी, हे कौन्तेय,
मेरा ही पूजन करते हैं लेकिन अविधि पूर्ण ढँग से।
अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते॥२४॥
मैं ही सभी यज्ञों का भोक्ता (भोगने वाला) और प्रभु हूँ। वे मुझे सार तक नहीं जानते, इसी लिये
वे गिर पड़ते हैं।
यान्ति देवव्रता देवान्पितॄन्यान्ति पितृव्रताः।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्॥२५॥
देवताओं (के अर्चन) का व्रत रखने वाले देवताओं के पास जाते हैं, पितृ पूजन वाले पितरों को प्राप्त करते हैं,
जीवों का पूजन करने वाले जीवों को प्राप्त करते हैं, और मेरी भक्ति करने वाले मुझे ही प्राप्त करते हैं।
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः॥२६॥
मेरा भक्त शुद्ध मन से मुझे जो भी पत्ता, फूल, फल अथवा जल अर्पित करता है, उस भक्ति भरे मन से अर्पित की वस्तु को
मैं भोगता (स्विकार करता) हूँ।
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥२७॥
हे कौन्तेय, तुम जो भी करते हो, जो भी खाते हो, जो भी यज्ञ करते हो, जो भी दान करते हो, जो भी तप करते हो,
वह सब मुझे ही अर्पण कर दो।
शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः।
संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि॥२८॥
इस प्रकार शुभ और अशुभ फलों से और कर्म बन्धन से मुक्ति पा कर,
सन्यास (त्याग) और योग युक्त आत्मा द्वारा विमुक्त हो तुम मुझे प्राप्त कर लोगे।
समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्॥२९॥
मेरे लिये सभी जीव एक से हैं - न मुझे किसी से द्वेष है और न ही कोई प्रिय है। लेकिन जो
भक्ति भाव से मुझे भजते हैं वे मुझ में हैं और मैं उन में हुँ।
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः॥३०॥
यदि बहुत दुराचारी व्यक्ति भी अनन्य भाव से मुझे भजता है तो उसे साधु पुरूष ही समझना चाहिये
क्योंकि उसने उत्तम निर्णय कर लिया है।
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥३१॥
वह जल्द ही धर्मात्मा (सदाचार करने वाला) बन शाश्वत शान्ति को प्राप्त कर लेता है। कौन्तेय, तुम एकदम जानो की
मेरे भक्त का कभी नाश नहीं होता।
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्॥३२॥
हे पार्थ, मेरा ही आश्रय लेकर वे लोग जो पाप योनियों से उत्पन्न हुये हैं, और स्त्रियाँ, वैश्य और शूद्र भी परम गति को
प्राप्त कर लेते हैं।
किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा।
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्॥३३॥
फिर पुण्य और भक्तिमान ब्राह्मण और राज (क्षत्रिय) ऋषियों की तो बात ही क्या है। इसलिये, इस
अनित्य (अन्तशील) और असुखी लोक में जन्म लेने पर मेरी ही भक्ति करो।
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः॥३४॥
मुझी में अपने मन को लगाओ, मेरे भक्त बनो, मेरा ही पूजन करो, मेरे ही सामने नत् मस्तक हो। इस प्रकार
युक्त रहते हुये, मेरे ही ओर लगे हुये तुम मुझे ही प्राप्त करोगे।