आरती संग्रह
गणेश जी
महादेव जी
शिव जी
लक्ष्मीमाता जी
अम्बेमाता जी
दुर्गामाता जी
सरस्वती जी
राणीसती जी
संतोषीमाता जी
सरस्वती जी
कालीमाता जी
वैष्णोदेवी जी
लक्ष्मीमाता जी
कालीमाता जी
विष्णु जी
रामचन्द्र जी
साईबाबा जी
श्यामबाबा जी
शनिदेव जी
सत्यनारायण जी
श्रीरामायण जी
कुंजबिहारी जी
वृहस्पति जी
गणेश जी
रामचन्द्र जी
चालीसा संग्रह
श्री गणेश चालीसा
श्री शिव चालीसा
श्री हनुमान चालीसा
श्री शनि चालीसा
श्री कृष्ण चालीसा
श्री शिव चालीस
श्री सरस्वती चालीसा
श्री लक्ष्मी चालीसा
श्री दुर्गा चालीसा
श्री गायत्री चालीसा
श्री विन्ध्येश्वरी चालीसा
श्री सरस्वती प्रार्थना
व्रत व त्यौहार
चैत मास
बसोडा
गणगौर
रामनवमी
चैत्र शुक्ल पूर्णिमा
जेठ मास
अचला एकादशी
वट सावित्रि व्रत
निर्जला एकादशी
आषाढ मास
देवशयनी एकादशी
गुरू पूर्णिमा
श्रावण़ मास
गौरी व्रत
भाद्रवा मास
गाज का व्रत
कृष्ण जन्मअष्टमी
ऋषि पंचमी
गौ गिरजा
अनन्त चतुर्दशी
उमा-महेश्वर का व्रत
आस्योज मास
महालक्ष्मी व्रत
विजया दशमी
शरद पूर्णिमा
कार्तिक मास
करवा चौथ
धन त्रयोदशी
रूप चतुर्दशी
नरक चतुर्दशी
दीपावली
देव प्रबोधिनी एकादशी
कार्तिक पूर्णिमा
पौष मास
गणेश चतुर्थ
सफला एकादशी
पुत्रदा एकादशी
माघ मास
शीतला माता
दत्तोत्रय जयन्ती
बसन्त पंचमी
मोक्षदा एकादशी
मार्गशीर्ष पूर्णिमा
फागुन मास
महाशिव रात्रि
आसमाता
आमल एकादशी
मल मास
मलमास कथा ( पुरूषोत्तम मास )
रामचरित मानस
बालकाण्ड
अयोध्याकाण्ड
अरण्यकाण्ड
किष्किन्धाकाण्ड
सुंदरकाण्ड
लंकाकाण्ड
उत्तरकाण्ड
श्रीमद्भगवद्गीता
प्रथमोऽध्याय: अर्जुनविषादयोग
द्वितीयोऽध्याय: सांख्ययोग
तृतीयोऽध्याय: कर्मयोग
चतुर्थोऽध्याय: ज्ञानकर्मसंन्यासयोग
पञ्चमोऽध्याय: कर्मसंन्यासयोग
षष्ठोऽध्याय: आत्मसंयमयोग
सप्तमोऽध्याय: ज्ञानविज्ञानयोग
अष्टमोऽध्याय: अक्षरब्रह्मयोग
नवमोऽध्याय: राजविद्याराजगुह्ययोग
दशमोऽध्याय: विभूतियोग
एकादशोऽध्याय: विश्वरूपदर्शनयोग
द्वादशोऽध्याय: भक्तियोग
त्रयोदशोऽध्याय: क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग
चतुर्दशोऽध्याय: गुणत्रयविभागयोग
पञ्चदशोऽध्याय: पुरुषोत्तमयोग
षोडशोऽध्याय: दैवासुरसंपद्विभागयोग
सप्तदशोऽध्याय: श्रद्धात्रयविभागयोग
अष्टादशोऽध्याय: मोक्षसंन्यासयोग
वेद
ऋग्वेदः
सामवेद
यजुर्वेद
अथर्ववेद
उपनिषद्
व्रतकथा
सोमवार व्रतकथा
मंगलवार व्रतकथा
बुधवार व्रतकथा
बृहस्पतिवार व्रतकथा
शुक्रवार व्रतकथा
शनिवार व्रतकथा
रविवार व्रतकथा
विशेष
आप और तिल
जयन्तियां
रामायण महामंत्र
शनि की साढ़े साती
सहस्त्र नामावली
दुर्गा रूप
Ramayan
आरती संग्रह
गणेश जी
महादेव जी
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चैत्र शुक्ल पूर्णिमा
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गौरी व्रत
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महालक्ष्मी व्रत
विजया दशमी
शरद पूर्णिमा
कार्तिक मास
धन त्रयोदशी
रूप चतुर्दशी
नरक चतुर्दशी
दीपावली
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कार्तिक पूर्णिमा
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गणेश चतुर्थ
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माघ मास
शीतला माता
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बसन्त पंचमी
मोक्षदा एकादशी
मार्गशीर्ष पूर्णिमा
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महाशिव रात्रि
आसमाता
आमल एकादशी
मल मास
मलमास कथा ( पुरूषोत्तम मास )
शास्त्र
रामचरित मानस
बालकाण्ड
अयोध्याकाण्ड
अरण्यकाण्ड
किष्किन्धाकाण्ड
सुंदरकाण्ड
लंकाकाण्ड
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श्रीमद्भगवद्गीता
अर्जुनविषादयोग
सांख्ययोग
कर्मयोग
ज्ञानकर्मसंन्यासयोग
कर्मसंन्यासयोग
आत्मसंयमयोग
ज्ञानविज्ञानयोग
अक्षरब्रह्मयोग
राजविद्याराजगुह्ययोग
विभूतियोग
विश्वरूपदर्शनयोग
भक्तियोग
क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग
गुणत्रयविभागयोग
पुरुषोत्तमयोग
दैवासुरसंपद्विभागयोग
श्रद्धात्रयविभागयोग
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व्रतकथा
सोमवार व्रतकथा
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बुधवार व्रतकथा
बृहस्पतिवार व्रतकथा
शुक्रवार व्रतकथा
शनिवार व्रतकथा
रविवार व्रतकथा
विशेष
सहस्त्र नामावली
गणेश जी के 108 नाम
लक्ष्मी जी के 108 नाम
राम जी के 108 नाम
हनुमान जी के 108 नाम
दुर्गा रूप
देवी शैलपुत्री
देवी ब्रह्मचारिणी
देवी चन्द्रघण्टा
देवी कूष्माण्डा
देवी स्कंदमाता
देवी कात्यायनी
देवी महागौरी
देवी दुर्गा
देवी रक्तदन्तिका
देवी महाकाली
देवी महालक्ष्मी
देवी भ्रामरी
देवी चामुण्डा
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सुंदरकाण्ड
समुद्र पार करने के लिए विचार, रावणदूत शुक का आना और लक्ष्मणजी के पत्र को लेकर लौटना
सुनु कपीस लंकापति बीरा। केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा॥
संकुल मकर उरग झष जाती। अति अगाध दुस्तर सब भाँति॥3॥
भावार्थ:-
हे वीर वानरराज सुग्रीव और लंकापति विभीषण! सुनो, इस गहरे समुद्र को किस प्रकार पार किया जाए? अनेक जाति के मगर, साँप और मछलियों से भरा हुआ यह अत्यंत अथाह समुद्र पार करने में सब प्रकार से कठिन है॥3॥
कह लंकेस सुनहु रघुनायक। कोटि सिंधु सोषक तव सायक॥
जद्यपि तदपि नीति असि गाई। बिनय करिअ सागर सन जाई॥4॥
भावार्थ:-
विभीषणजी ने कहा- हे रघुनाथजी! सुनिए, यद्यपि आपका एक बाण ही करोड़ों समुद्रों को सोखने वाला है (सोख सकता है), तथापि नीति ऐसी कही गई है (उचित यह होगा) कि (पहले) जाकर समुद्र से प्रार्थना की जाए॥4॥
दोहा
प्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि कहिहि उपाय बिचारि॥
बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि॥50॥
भावार्थ:-
हे प्रभु! समुद्र आपके कुल में बड़े (पूर्वज) हैं, वे विचारकर उपाय बतला देंगे। तब रीछ और वानरों की सारी सेना बिना ही परिश्रम के समुद्र के पार उतर जाएगी॥50॥
चौपाई
सखा कही तुम्ह नीति उपाई। करिअ दैव जौं होइ सहाई।
मंत्र न यह लछिमन मन भावा। राम बचन सुनि अति दुख पावा॥1॥
भावार्थ:-
(श्री रामजी ने कहा-) हे सखा! तुमने अच्छा उपाय बताया। यही किया जाए, यदि दैव सहायक हों। यह सलाह लक्ष्मणजी के मन को अच्छी नहीं लगी। श्री रामजी के वचन सुनकर तो उन्होंने बहुत ही दुःख पाया॥1॥
नाथ दैव कर कवन भरोसा। सोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा॥
कादर मन कहुँ एक अधारा। दैव दैव आलसी पुकारा॥2॥
भावार्थ:-
(लक्ष्मणजी ने कहा-) हे नाथ! दैव का कौन भरोसा! मन में क्रोध कीजिए (ले आइए) और समुद्र को सुखा डालिए। यह दैव तो कायर के मन का एक आधार (तसल्ली देने का उपाय) है। आलसी लोग ही दैव-दैव पुकारा करते हैं॥2॥
सुनत बिहसि बोले रघुबीरा। ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा॥
अस कहि प्रभु अनुजहि समुझाई। सिंधु समीप गए रघुराई॥3॥
भावार्थ:-
यह सुनकर श्री रघुवीर हँसकर बोले- ऐसे ही करेंगे, मन में धीरज रखो। ऐसा कहकर छोटे भाई को समझाकर प्रभु श्री रघुनाथजी समुद्र के समीप गए॥3॥
प्रथम प्रनाम कीन्ह सिरु नाई। बैठे पुनि तट दर्भ डसाई॥
जबहिं बिभीषन प्रभु पहिं आए। पाछें रावन दूत पठाए॥4॥
भावार्थ:-
उन्होंने पहले सिर नवाकर प्रणाम किया। फिर किनारे पर कुश बिछाकर बैठ गए। इधर ज्यों ही विभीषणजी प्रभु के पास आए थे, त्यों ही रावण ने उनके पीछे दूत भेजे थे॥51॥
दोहा
सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह।
प्रभु गुन हृदयँ सराहहिं सरनागत पर नेह॥51॥
भावार्थ:-
कपट से वानर का शरीर धारण कर उन्होंने सब लीलाएँ देखीं। वे अपने हृदय में प्रभु के गुणों की और शरणागत पर उनके स्नेह की सराहना करने लगे॥51॥
चौपाई
प्रगट बखानहिं राम सुभाऊ। अति सप्रेम गा बिसरि दुराऊ॥
रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने। सकल बाँधि कपीस पहिं आने॥1॥
भावार्थ:-
फिर वे प्रकट रूप में भी अत्यंत प्रेम के साथ श्री रामजी के स्वभाव की बड़ाई करने लगे उन्हें दुराव (कपट वेश) भूल गया। सब वानरों ने जाना कि ये शत्रु के दूत हैं और वे उन सबको बाँधकर सुग्रीव के पास ले आए॥1॥
कह सुग्रीव सुनहु सब बानर। अंग भंग करि पठवहु निसिचर॥
सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए। बाँधि कटक चहु पास फिराए॥2॥
भावार्थ:-
सुग्रीव ने कहा- सब वानरों! सुनो, राक्षसों के अंग-भंग करके भेज दो। सुग्रीव के वचन सुनकर वानर दौड़े। दूतों को बाँधकर उन्होंने सेना के चारों ओर घुमाया॥2॥
बहु प्रकार मारन कपि लागे। दीन पुकारत तदपि न त्यागे॥
जो हमार हर नासा काना। तेहि कोसलाधीस कै आना॥3॥
भावार्थ:-
वानर उन्हें बहुत तरह से मारने लगे। वे दीन होकर पुकारते थे, फिर भी वानरों ने उन्हें नहीं छोड़ा। (तब दूतों ने पुकारकर कहा-) जो हमारे नाक-कान काटेगा, उसे कोसलाधीश श्री रामजी की सौगंध है॥ 3॥
सुनि लछिमन सब निकट बोलाए। दया लागि हँसि तुरत छोड़ाए॥
रावन कर दीजहु यह पाती। लछिमन बचन बाचु कुलघाती॥4॥
भावार्थ:-
यह सुनकर लक्ष्मणजी ने सबको निकट बुलाया। उन्हें बड़ी दया लगी, इससे हँसकर उन्होंने राक्षसों को तुरंत ही छुड़ा दिया। (और उनसे कहा-) रावण के हाथ में यह चिट्ठी देना (और कहना-) हे कुलघातक! लक्ष्मण के शब्दों (संदेसे) को बाँचो॥4॥
दोहा
कहेहु मुखागर मूढ़ सन मम संदेसु उदार।
सीता देइ मिलहु न त आवा कालु तुम्हार॥52॥
भावार्थ:-
फिर उस मूर्ख से जबानी यह मेरा उदार (कृपा से भरा हुआ) संदेश कहना कि सीताजी को देकर उनसे (श्री रामजी से) मिलो, नहीं तो तुम्हारा काल आ गया (समझो)॥52॥
चौपाई
तुरत नाइ लछिमन पद माथा। चले दूत बरनत गुन गाथा॥
कहत राम जसु लंकाँ आए। रावन चरन सीस तिन्ह नाए॥1॥
भावार्थ:-
लक्ष्मणजी के चरणों में मस्तक नवाकर, श्री रामजी के गुणों की कथा वर्णन करते हुए दूत तुरंत ही चल दिए। श्री रामजी का यश कहते हुए वे लंका में आए और उन्होंने रावण के चरणों में सिर नवाए॥1॥
बिहसि दसानन पूँछी बाता। कहसि न सुक आपनि कुसलाता॥
पुन कहु खबरि बिभीषन केरी। जाहि मृत्यु आई अति नेरी॥2॥
भावार्थ:-
दशमुख रावण ने हँसकर बात पूछी- अरे शुक! अपनी कुशल क्यों नहीं कहता? फिर उस विभीषण का समाचार सुना, मृत्यु जिसके अत्यंत निकट आ गई है॥2॥
करत राज लंका सठ त्यागी। होइहि जव कर कीट अभागी॥
पुनि कहु भालु कीस कटकाई। कठिन काल प्रेरित चलि आई॥3॥
भावार्थ:-
मूर्ख ने राज्य करते हुए लंका को त्याग दिया। अभागा अब जौ का कीड़ा (घुन) बनेगा (जौ के साथ जैसे घुन भी पिस जाता है, वैसे ही नर वानरों के साथ वह भी मारा जाएगा), फिर भालु और वानरों की सेना का हाल कह, जो कठिन काल की प्रेरणा से यहाँ चली आई है॥3॥
जिन्ह के जीवन कर रखवारा। भयउ मृदुल चित सिंधु बिचारा॥
कहु तपसिन्ह कै बात बहोरी। जिन्ह के हृदयँ त्रास अति मोरी॥4॥
भावार्थ:-
और जिनके जीवन का रक्षक कोमल चित्त वाला बेचारा समुद्र बन गया है (अर्थात्) उनके और राक्षसों के बीच में यदि समुद्र न होता तो अब तक राक्षस उन्हें मारकर खा गए होते। फिर उन तपस्वियों की बात बता, जिनके हृदय में मेरा बड़ा डर है॥4॥
होम
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अबाउट अस
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आरती संग्रह
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चालीसा संग्रह
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व्रत व त्यौहार
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रामचरित मानस
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श्रीमद्भगवद्गीता
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वेद
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व्रतकथा
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विशेष