विजया दशमी या दशहरा का पर्व आश्विन मास की शुक्ल पक्ष की दशमी को मनाया जाता है । इस पर्व को भगवती के ”विजया“ नाम पर विजाया दशमी कहते ह। इस दिन भगवान रामचन्द्र जी ने लंका पर विजय प्राप्त कि थी इसलिए भी इस पर्व का विजया दशमी कहा जाता है । ऐसा मानना है कि आश्विन शुक्ल दशमी कहा जाता है । ऐसा मानन है कि आश्विन शुक्ल दशमी को तारा उदय होने के समय ”विजय“ नामक काल होता है यह काल सर्वकार्य सिद्धि दायक होता है । बंगाल में यह उत्सव दुर्गा के पर्व के रूप में बडी धूमधाम से मनाया जाता है । देश के कोने कोने में इस पर्व से कुछ दिन पहले से ही रामलिलाएँ शुरू हो जाती है सूर्यास्त होते ही रावण, कुम्भकरण तथा मेंघनाथ के पुतले जलाये जाते हैं । दुर्गा पूजन, अपराजिता पूजन, विजय-प्रमाण, शमीपूजन तथा नवरात्र पारण, दुर्गा-विसर्जन इस पर्व के महान कार्य है । क्षत्रियो का यह बहुत बडा पर्व माना जाता है । इस दिन ब्राह्यण सरस्वती पुजन, क्षत्रिय शस्त्र-पूजन तथा वैश्य बही पूजन करते है।इसलिये यह राष्ट्रीय पर्व माना जाता है ।
कथा एक बार पार्वती जी ने शिवजी से दशहरे के त्यौहार के फल के बारे में पूछा। शिवजी ने उतर दिया,”आश्विन शुक्ल दशमी को सांयकाल में तारा उदय होने के समय ”विजय“ नामक काल होता है जो सब इच्छाओ को पुर्ण करने वाला होता है । इस दिन यदि श्रवण नक्षत्र का योग होता और भी शुभ है । भगवान रामचन्द्रजी इसी विजय काल में लंका पर चढाई करके रावण को परास्त किया था। इसी काल में शमी वृक्ष ने अर्जुन का गांडीव नामक धनुष धारण किया था।“
पार्वती जी बोली शमी वृक्ष ने अर्जुन का धनुष कब और किसी कारण धारण किया था तथा रामचन्द्रजी से कब और कैसी प्रिय वाणी कही थी, सो कृपाकर मुझे समझाइये।
शिवजी ने जवबा दिया- दुर्योधन ने पांडवो को जुएँ में पराजित करके बारह वर्ष का वनवास तथा तेरहवे वर्ष में अज्ञात वास की शर्त रखी थी । तेरहवे वर्ष यदि उनका पता लग जायेगा तो उन्हे पुःन बारह वर्ष का वनवास भोगना होगा । इसी अज्ञातवास में अर्जुन ने अपने गंाडीव धनुष को शमी वृक्ष पर छुपाया था तथा स्वयं बृहन्नला के वेश में राजा विराट् के पास नौकरी की थी । जब गौ रक्षा के लिए विराट् के पुत्र कुमार ने अर्जुन का अपने साथ लिया तब शमी वृक्ष पर जाकर अर्जुन ने शमी अपना धनुष उठाकर शत्रुओ पर विजय प्राप्त की थी । विजया दशमी के दिन रामचन्द्रजी ने लंका पर चढाई करने के लिए प्रस्थान करते समय शमी वृक्ष ने रामचन्द्रजी की विजय का उद्घोष किया था । विजय काल में शमी पूजन इसीलिए होता है ।
एक बार युधिष्ठर के पूछने पर श्री कृष्णजी ने उन्हे बताया था कि विजय दशमी के दिन राजा को स्वयं अलंकृत होकर अपने दासो और हाथी-घोडो को सजाना चाहीए । उस दिन अपने पुरोहितो को साथ लेकर पूर्व दिशा में प्रस्थान करके दूसरे राजा की सीमा में प्रवेश करना चाहीए तथा वहाँ वास्तु पूजा करके अष्ट-दिग्पालो तथा पार्थ देवता की वैदिक मंत्रो से पूजा करनी चाहीए । शत्रु की मूर्ति अथवा पुतला बनाकर उसकी छाती में बाण करना चाहीए तथा पुरोहित वेद मंत्रो का उच्चारण करें । ब्राह्यणो की पूजा करके हाथी, घोडा, अस्त्र, शस्त्र का निरिक्षण करना चाहीए। जो राजा इस विधि से विजय प्राप्त करता है । वह सदा अपने पुत्र पर विजय प्राप्त करता है ।