महाशिव रात्रि का व्रत फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को किया जाता है ।
विधानः त्रयोदशी को एक बार भोजन करके चतुर्दशी को दिन भर निराहार रहता पडता है । पत्र पुष्प तथा सुन्दर वस्त्रो से मंडप तैयार करके वेदी पर कलश की स्थापना करके गौरी श्ंाकर की स्वर्ण मुर्ति तथा नन्दी की चाँदी की मुर्ति रखनी चाहीए । कलश को जल से भरकर रोली, मोली, चावल, पान, सुपारी, लौंग, इलायची, चन्दन, दूध, घी, शहद, कमलगट्टा, धतुरा,बेल पत्र आदि का प्रसाद शिव को अर्पित करके पूजा करनी चाहीए । रात को जागरण करके चार बार शिव आरती का विधान जरूरी है । दूसरे दिन प्रातः जौ, तिल, खीर तथा बेलपत्र का हवन करना ब्राह्यणो को भोजन करवाकर व्रत का पारण कराना चाहीए ।
भगवान शंकर पर चढाया गया नैवेद्य को खाना निषिद्ध है । जो इस नैवेद्य को खा लेता है वह नरक को प्राप्त होता है । इस कष्क मे निवारण के लिए शिव की मुर्ति के पास शालिग्राम कीमुर्ति रखते हैं । यदि शिव के प्रतिमा मे पास शालिग्राम की मुर्ति होगी तो नैवेद्य खाने पर कोई दोष नही लगता है ।
कथा ः एक गाँव में एक शिकारी रहाता था । वह शिकार करके अपने परिवार का पालन करता था एक बार उस पर साहुकार का ऋण हो गया । उस दिन शिवरात्रि थी । वह शिव सम्बन्धी बाते ध्यानपूर्वक देखता एव सुनता रहा । संध्या होने पर सेठ ने उसे अपने पास बुलाया । शिकारी ने अगले दिन ऋण चुकाने का वायदा कर सेठ की कैद से छुट गया । जंगल में एक तालाब के किनारे बेल वृक्ष पर शिकार करने के लिए मचान बनाने लगा । उस पेड के नीचे शिवलिगं था । पेड के पत्ते मचान बनाते समय शिवलिंग पर गिरे । इस प्रकार दिनभर भुखे रहने से शिकारी का व्रत भ हो गया । और शिवलिंग पर बेलपत्र भी चढ गये ।
एक पहर व्यतीत होने पर एक गर्भिणी हिरणी तालाब पर पानी पीने निकली । शिकारी ने उसे देखकर धनुषबाण उठा लिया । वह हरिणी कातर स्वर में बोली, ”मैं गर्भवती हूँ । मेरा प्रसव काल समीप ही है। मैं बच्चे को जन्म देकर शीघ्र ही तुम्हारे सामने उपस्थित हो जाऊगी ।“ शिकारी ने छोड दियां कुछ देर बाद एक दुसरी हिरणी उधर से निकली । शिकारी ने फिर धनुष पर बाण चढाय । हिरणी नेनिवेदन किया, ” हे व्याघ्र महोदय! मैं थोडी देर पहले ऋतु से निवृत हुई हूँ कामातुर विरहिणी हुँ । अपने पति से मिलन करने पर शीघ्र तुम्हारे समक्ष प्रस्तुत हो जाँऊगी। “ शिकारी ने उसे भी छोंड दिया । रात्रि के अन्तिम पहर में एक मृगी अपने बच्चो के साथ उधर से निकली । शिकारी ने शिकार हेतू धनुष पर बाण चढाया वह तीर छोडने ही वाला था । कि वह मृगी बोली,” मै इन बच्चो को इनके पिता के पास छोड आऊँ, तब मुझे मार डालना । मैं आफ बच्चो के नाम पर दया की भीख माँगती हूँ ।“ शिकारी को इस पर भी दया आ गयी और उसे छोड दिया । पौं फटने को हुई तो एक तन्दरूस्त हिरन आता दिखाई दिया । शिकारी उसका शिकार करने के लिए उद्यत हो गया । हिरन बोला, ”व्याघ्र महोदय! यदि तुमने इससे पहले तीन मृगियो तथा उनके बच्चो का मार दिया हो तो मुझे भी मार दिजिए ताकि मुझे उनका वियोग न सहना पडे । मैं उन तीनो का पति हूँ । यदि तुमने उन्हे जीवन दान दिया हो तो मुझपर भी कुछ समय के लिए कृपा करें । मै उनसे मिलकर तुम्हारे सामने आत्पसमर्पण कर दूगाँ। “
मृग की बात सुनकर रात की सारी घटनाएँ उसके दिमाग म घूम गई। उसने मृग की सारी बाते बता दी । उपवास, रात्रि जागरण तथा शिवलिगं पर बेलपत्र चढने से उससे भगवद् भक्ति का जागरण हो गया । उसने मृग को भी छोड दिया । भगवान शिवंलिग श्ंाकर की अनुकम्पा से उसका ह्वदय मांगलिक भावो से भर गया अपने अतीत के कर्मो को याद करके वह पश्चाताप की अग्नि मे जलने लगी । थोडी देर बाद हिरण सपरिवार शिकारी के सामने उपस्थित हो गया । जंगली पशंओ की सत्यप्रियता, सात्विकता एव सामूहिक प्रेम भवाना को देखकर उसे बडी ग्लानि हुई । उसके नेत्रो से आँशुओ की झडी लग गई । उसने हिरण परिवार को मुक्त कर देया । देवता इस घटना को देख रहे थे । उन्होने आकाश से उस पर पुष्प वर्षा की । शिकारी परिवार सहित मोक्ष को प्राप्त हुआ ।