होली का उत्सव सम्पन्न होने के बाद लोग शीतला माता का व्रत और पूजन बडी श्रद्धा के साथ करते हैं। वैसे, शीतला देवी की पूजा चैत्र मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि से प्रारंभ होती है, लेकिन कुछ स्थानों पर इनकी पूजा होली के बाद पडने वाले पहले सोमवार अथवा गुरुवार के दिन ही की जाती है।
प्राचीनकाल से ही भगवती शीतला का बहुत अधिक माहात्म्य रहा है। स्कन्दपुराणमें इनकी अर्चना का स्तोत्र शीतलाष्टक के रूप में प्राप्त होता है। ऐसा माना जाता है कि इस स्तोत्र की रचना भगवान शंकर ने लोकहित में की थी। शीतलाष्टकन केवल शीतला देवी की महिमा गान करता है, बल्कि उनकी उपासना के लिए भक्तों को प्रेरित भी करता है। शास्त्रों में भगवती शीतला की वंदना के लिए यह मंत्र बताया गया है-
वन्देऽहंशीतलांदेवीं रासभस्थांदिगम्बराम्। मार्जनीकलशोपेतां सूर्पालंकृतमस्तकाम्॥
इसका अर्थ है-गर्दभ पर विराजमान, दिगम्बरा,हाथ में झाडू तथा कलश धारण करने वाली, सूप से अलंकृत मस्तकवालीभगवती शीतला की मैं वंदना करता हूं। शीतला माता के इस वंदना मंत्र से यह पूर्णत:स्पष्ट हो जाता है कि ये स्वच्छता की अधिष्ठात्री देवी हैं। हाथ में मार्जनी [झाडू] होने का अर्थ है कि हम लोगों को भी सफाई के प्रति जागरूक होना चाहिए। कलश से हमारा तात्पर्य है कि स्वच्छता रहने पर ही स्वास्थ्य रूपी समृद्धि आती है।
भगवती शीतला की पूजा का विधान भी विशिष्ट होता है। शीतलाष्टमी के एक दिन पूर्व उन्हें भोग लगाने के लिए बसौडा तैयार कर लिया जाता है। अष्टमी के दिन बासी पदार्थ ही देवी को नैवेद्य के रूप में समर्पित किया जाता है। और भक्तों के बीच प्रसाद के रूप में वितरित किया जाता है। यही वजह है कि संपूर्ण उत्तर भारत में शीतलाष्टमी बसौडा के नाम से विख्यात है।
भारत के विभिन्न अंचलों में शीतला माता की अनेक लोककथाएं प्रसिद्ध हैं। अधिकतर कहानियों का सार यह है कि शीतला देवी की अर्चना से शीतला [चेचक] के प्रकोप का भय दूर होता है। इसके आधार पर यह अनुमान लगाना उचित है कि प्राचीन काल में चेचक जैसी महामारी से बचने के लिए आद्याशक्तिके शीतला रूप की पूजा होने लगी। उनकी महिमा के बखान में अनेक लोकगीतों की रचना की गई।
शीतला माता की पूजा के दिन घर में चूल्हा नहीं जलता है। आज भी लाखों लोग इस नियम का बडी आस्था के साथ पालन करते हैं। भगवती शीतला की उपासना अधिकांशत:बसंत एवं ग्रीष्म ऋतु में होती है। शीतला [चेचक] के फैलने [संक्रमण] का भी यही मुख्य समय है। इसलिए इनकी पूजा का विधान पूर्णत:सामयिक है। चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ के कृष्णपक्ष की अष्टमी शीतला देवी की पूजा-अर्चना के लिए समर्पित होती है। इसलिए यह दिन शीतलाष्टमी के नाम से विख्यात है।
आधुनिक युग में भी शीतला माता की उपासना स्वच्छता की प्रेरणा देने के कारण सर्वथा प्रासंगिक है। भगवती शीतला की उपासना से हमें स्वच्छता और पर्यावरण को सुरक्षित रखने की प्रेरणा मिलती है। शीतलोपासनाकी परंपरा प्रारंभ करने के पीछे संभवत:हमारे ऋषियों का भी यही आशय रहा होगा।