यह व्रत भाद्रपद पूर्णिमा को किया जाता है । विधान स्नान कर भगवान शकर की प्रतिमा को स्नान कराकर विल्वपत्र, फूल आदि से पूजन करते है तथा रात्रि को मन्दिर में जागरण करना चाहीए पूजन के बाद यथाशक्ति ब्राह्यण को भोजन कराकर दान दक्षिणा देकर व्रत का समापन करना चाहीए ।
कथाः इस व्रत का उल्लेख मत्स्य पुराण में मिलता है कहा जाता है कि एक बार महर्षि दुर्वासा शकर जी के दर्शन करके लौट रहे थे। मार्ग में उनकी भेंट विष्णुजी से हो गई। महर्षि ने शंकर द्वारा दी गई विल्वपत्र की माला विष्णुजी को दे दी । विष्णु ने इस माला को स्वय के गले में पहनकर गरूड के गले डाल दीं। इससे दुर्वासा क्रोधित होकर बोले की तुमने श्कर का अपमान किया है । इससे तुम्हारे पास से लक्ष्मी चली जायेगी । क्षीर सागर से भी हाथ धोना पडेगा । शेषनाग भी तुम्हारी सहायता न कर सकेंगे । यह सुनकर विष्णुजी ने दुर्वासा को प्रणाम कर मुक्त होने का उपाय पूछा । दूर्वासा ऋषि ने बताया कि उमा-महेश्वर का व्रत करो, तभी तुम्हे ये वस्तुएँ मिलेगी। तब विष्णुजी ने उमा
महेश्वर का व्रत किया व्रत के प्रभाव से लक्ष्मी आदि समस्त शापित वस्तुएँ भगवान विष्णु को पुनः मिल गई ।