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सामवेद

साम से सम्‍बद्ध वेद सामवेद कहलाता है । आरोह एवं अवरोह से युक्‍त मंत्रों का गान साम कहलाता है । वस्‍तुत: सामवेद में ऋग्‍वेद की उन ऋचाओं का संकलन है जो गान के योग्‍य समझी गयी थीं । ऋचाओं का गान ही सामवेद का मुख्‍य उद्देश्‍य माना जाता है । सामवेद मुख्‍यत: उपासना से सम्‍बद्ध है, सोमयाग में आवाहन के योग्‍य देवताओं की स्‍तुति‍यॉं इसमें प्राप्‍त होती है । यज्ञ-सम्‍पादन काल में उद्गाता इन मंत्रों का गान करता था । संपूर्ण सामवेद में सोमरस , सोमदेवता , सोमयाग, सोमपान का महत्‍व अंकि‍त है इसलि‍ए इसे सोमप्रधान वेद भी कहा जाता है ।

सामगान की पृथक परंपराओं के कारण सामवेद की एक सहस्र(हजार) शाखाओं का उल्‍लेख महाभष्‍य में प्राप्‍त होता है -'सहस्‍त्रवर्त्‍मा सामवेद:।' सम्‍प्रति‍ सामवेद की तीन शाखायें उपलब्‍ध हैं -कौथुमीय , राणायनीय, जैमि‍नीय । ये तीनों शाखायें क्रमश: गुजरात , महाराष्‍ट्र, कर्नाटक एवं केरल में मुख्‍य रूप से प्रचलि‍त है । इन संहि‍ताओं का संक्षि‍प्‍त परि‍चय इस प्रकार है - 

कौथुमीय संहि‍ता - इस संहि‍ता के पूर्वार्चि‍क एवं उत्तरार्चि‍क ये दो खण्‍ड हैं । पूर्वार्चि‍क को छंद्स भी कहते हैं । इस पूर्वार्चि‍क के आग्‍नेय , ऐन्‍द्र , पवमान, आरण्‍यक ये चार भाग हैं । इन्‍हें पर्व भी कहते हैं । पूर्वार्चि‍क   में 6 प्रपाठक हैं तथा उत्तरार्चि‍क में 9 प्रपाठक हैं । इस संहि‍ता में मुख्‍यत: अग्‍नि‍ सोम से सम्‍बन्‍धि‍त ऋचायें , इंद्र का उद्बोधन मंत्र, दशरात्र, संवत्‍सर, एकाह यज्ञ संबधी मंत्र प्राप्‍त होते हैं ।

राणानीय संहि‍ता - इसकी वि‍षयवस्‍तु एवं मंत्रों का क्रम कौथुमीय संहि‍ता के समान ही है । मात्र गाना पद्धति‍ में अंतर है । इसमें वि‍षयवस्‍तु का वि‍भाजन प्रपाठक, अर्द्धप्रपाठक एवं दशति‍ के रूप में है । कौथुम शाखा से इस संहि‍ता का उच्‍चारणगत भेद भी प्राप्‍त होता है।

जैमि‍नीय संहि‍ता - जैमि‍नीय संहि‍ता एवं कौथुम संहि‍ता में सामगानों की संख्‍या का  भेद है । जैमि‍नीय संहि‍ता  में   कौथुम शाखा की अपेक्ष 1000 अधि‍क सामगान हैं । तलवकार ( तवलकार ) इसकी अवान्‍तर शाखा है जि‍ससे सम्‍बद्ध उपनि‍षद् केनोपनि‍षद् के नाम से प्रसि‍द्ध है ।

 सामवेद के मंत्रों के गान पर पर्याप्‍त साहि‍त्‍य रचना हुई है । इन ग्रथों का आधार पूर्वार्चि‍क मंत्र हैं । ये सामगान 4 प्रकार के हैं- ग्रामगान ( सार्वजनि‍क स्‍थानों या ग्राम में गाए जाने वाले गान ), आरण्‍यकगान ( वनों तथा पवि‍त्र स्‍थलों में गेय गान ), उह्यगान ( सोमयाग तथा वि‍शि‍ष्‍ट धार्मि‍क अवसरों पर गाने जाने वाले गान  ) तथा उह्मगान ( रहस्‍य गान ) । वैदि‍क संहि‍ताओं में सामवेद संहि‍ता का अत्‍यन्‍त महत्‍व है । भगवान श्री कृष्‍ण स्‍वयं को सामवेद कहते हैं - ' वेदानां सामवेदोऽस्मि ।' बृहद्देवता में सामवेद के दार्शनि‍क एवं तात्त्‍वि‍क महत्त्‍व को स्‍पष्‍ट करते हुये कहा गया है कि‍ - 'यो वेत्ति‍ सामानि‍ स वेत्ति‍ तत्त्‍वम् ।'

   
 
 
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