गद्यात्मक यजुर्वेद संहिता में यज्ञ के साधक मंत्र संकलित हैं । इन मंत्रों का उपयोग अध्वर्यु नामक ऋत्विक करता है । संप्रति यजुर्वेद की दो प्रमुख शाखायें हैं - कृष्ण यजुर्वेद एवं शुक्ल यजुर्वेद । कृष्ण यजुर्वेद ब्रह्म सम्प्रदाय से सम्बद्ध है तथा शुक्ल यजुर्वेद आदित्यसम्प्रदाय से । कृष्ण यजुर्वेद की संहिताओं में मंत्रों के साथ उनकी व्याख्या , विवरण एवं विनियोग भी प्राप्त होता है । मिश्रण के कारण वह ' कृष्ण' है ( विनियोगमिश्रत्वं कृष्णत्वम्) । शुक्ल यजुर्वेद कीसंहिताओं में मंत्र हैं, उसमें विनियोगों का मिश्रण नहीं है अत: वह 'शुक्ल' कहलाता है ( विनियोगमिश्रत्वं शुक्लत्वम् ) ।
प्राचीन काल में यजुर्वेद की 101 शाखायें थीं ( एकशतमध्वर्युशाखा: - महाभाष्य) किन्तु कालक्रम से इनकी शाखायें लुप्त होने लगीं । वर्तमान में मात्र 6शाखायें हीं उपलब्ध हैं - शुक्ल यजुर्वेद की दो शाखायें - माध्यन्दिन एवं काण्व शाखा तथा कृष्ण यजुर्वेद की चार शाखायें - तैत्तिरीय , मैत्रायणी, काठक एवं कपिष्ठल शाखा ।
शुक्ल यजुर्वेद - शुक्ल यजुर्वेद की संहिता का नाम वाजसनेयि-संहिता हा । वस्तत: एक ही मूल संहिता दो रूपों या संस्करणों में उपलब्ध है - माध्यन्दिन तथा काण्व । इस भेद का आधार मुख्यता भौगोलिक है । माध्यन्दिन संहिता उत्तर भारत में प्रचलित है तथा काण्व संहिता का प्रचार मुख्य रूप से महाराष्ट्रमें है। इनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है -
माध्यन्दिन संहिता -यह मूल संहिता है । इसे वाजसनेय संहिता भी कहते है । इस संहिता में 40 अध्याय है । इसके अंतिम 15 अध्याय ' खिल' माने जाते है तथा
चालीसवाँ अध्याय ' ईशावास्य-उपनिषद्' के नाम से प्रसिद्ध है । इसमें दर्शपौर्णमास , अग्निहोत्र , चातुर्मास्य , सोमयोग तथा उससे सम्बद्ध अग्निष्टोम , वाजपेय , राजसूय , सौत्रामणि , अश्र्वमेधादि यज्ञों का वर्णन है । अग्नि चयन तथा वेद निर्माण का विस्तृत निरूपण है । इस संहिता के रूद्राध्याय , पुरूषसूक्त तथा शिवसंकल्प सूक्त वैदिक साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान रखते है । इस पर उच्चट एवं महीधर का भाष्य उपलब्ध है ।
काण्व संहिता - कण्व द्वारा प्रवर्तित तथा प्रचारित शाखा होने के कारण इसे काण्व शाखा कहते है । इस संहिता मे40 अध्याय हैं तथा विषयवस्तु माध्यन्दिन संहिताके समान है । इसमें 'ष' का उच्चारण 'ष' ही रहता है । माध्यन्दिन संहिता में 'ष' का उच्चारण 'ख' होता है ।
कृष्ण यजुर्वेद - इस वेद की चार शाखाओं की संहिता उपलब्ध है । इनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है -
तैत्तिरीय संहिता - यह कृष्ण यजुर्वेद की प्रतिनिधि संहिता है । 'तित्तिर ऋषि' के द्वारा प्रोक्त होने के कारण इसे तैत्तिरीय संहिता कहते है । इसमें 7 काण्ड एवं 44 प्रपाठक है । प्रपाठकों का अवान्तर विभाजन अनुवाकों में है ।इसका विशेष प्रचार महाराष्ट्रतथा दक्षिण भारत में है। इसमें दर्शपौर्णमास ,अग्न्याधान , राजसूय , काम्यपशु , काम्येष्टियों आदि का विधान प्राप्त होता है । यहाँ रूद्र की प्रधानता मिलती है । इसमें मंत्रों के साथ उनका विनियोग भी प्राप्त होता है । इस पर सायण का भाष्य मिलता है ।
मैत्रायणी संहिता -यह कृष्ण यजुर्वेद की मैत्रायणी शाखा से सम्बद्ध है । इस शाखा को 'कलाप' या 'कलापक' भी कहते है । इसमें भी मंत्र तथा उनका विनियोग प्राप्त होता है । मैत्रायणी संहिता में 4 काण्ड तथा 54 प्रपाठक हैं । इसमें मुख्य रूप से दर्शपौर्णमास, सोमयाग , अध्वर , आधान , पुनराधान , अग्निचिति , सौत्रामणि आदि का विवेचन है ।
कठ(काठक) संहिता- कृष्ण यजुर्वेद की कठ शाखा से सम्बद्ध संहिता का प्रचार पतंजलि के अनुसार गाँव -गाँव में था । इसका प्रचार उत्तर प्रान्त एवं कश्मीर में मिलता है । इसमें ५ खण्ड तथा40 स्थानक है । इसमें पुरोडाश, अध्वर , राजसूय, वाजपेय आदि का विवेचन है ।
कपिष्ठल - कठ संहिता- यह संहिता अपूर्ण मिलती है । इसमें विषय-वस्तु का विभाजन अष्टकों एवं अध्यायों में है ।
उपरोक्त संहितायें वैदिक साहित्य में विशिष्ट महत्व रखती है । यज्ञों की जटिलता तथा वृद्धि के क्रम में ही यजुर्वेद संहिता की शाखाओं में वृद्धि हुई । धर्म के विन्यास एवं उसकी प्रक्रियाओं के अध्ययन में यजुर्वेद का अत्यन्त महत्व है । परवर्ती धार्मिक एवं दार्शनिक साहित्य को समझने के लिए भी ये वेद अपरिहार्य है । क्योंकि यजुर्वेद के अध्ययन के बिना कर्मकाण्डीय विवादों से परिपूर्ण ब्राह्मणों को नहीं समझा जा सकता और उसके बिना उपनिषदों में समाहित दार्शनिक रहस्यों का ज्ञान असम्भव है ।